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Tuesday 13 August 2019

किसानों की झोली तो खाली ही रह गई


किसानों की झोली तो खाली ही रह गई
डॉ.अनिल चौधरी
केंद्र सरकार के अंतरिम बजट में खेती-किसानी का मुद्दा सबसे अधिक चर्चा में रहा। पहली बार किसी अंतरिम बजट में किसान बहस के केंद्र में रहा। हर नुक्कड़-चौराहे और चौपाल पर किसान की हालत पर बहस होती नजर आई। केंद्र सरकार ने दो हेक्टेयर यानि पांच एकड़ तक के किसान को छह हजार रुपये सालान की मदद देने के ऐलान को ऐतिहासिक कदम बताया। राष्ट्रीय कामधेनु आयोग का गठन और पशुपालन के साथ मतस्य पालन में क्रेडिट कार्ड योजना को लागू कर किसान हितैषी होने का दंभ भरा लेकिन किसान संगठनों ने इन घोषणाओं को सिरे से खारिज कर दिया। उनका मानना है कि किसान को सरकारों ने भिखारी की श्रेणी में ला खड़ा किया है जबकि उसे खैरात की नहीं फसल के उचित मूल्य और उसकी फसलों की खरीद की गारंटी की दरकार है। ऐसा नहीं हुआ तो ऋण माफी योजना तुरंत कुछ किसानों को राहत तो दे सकती है लेकिन उसे लगातार घाटे में जाती खेती से नहीं उबार सकती।
सवाल यह भी वाजिब है। तेलंगाना जैसा छोटा सा प्रदेश ऋतु बंधु योजना के तहत एक फसल के बुआई सीजन में 4000 हजार प्रति एकड़ यानि दो हेक्टेयर के हिसाब से 20 हजार प्रति फसल दे रहा है जो साल में 40 हजार बैठता है। वहीं ओडिशा में भी किसानों को दस हजार और भूमिहीन किसानों यानि पट्टे पर खेती करने वालों को 12500 रुपये देने की घोषणा की गई। ऐसे में केंद्र की मात्र 6000 रुपये की घोषणा से किसान को पल्ले कुछ पड़ेगा और इससे उसकी आमदनी में इजाफा होगा, इसकी संभावना नगण्य ही नजर रही है। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक एक सीजन में तीन हजार रुपये की मदद ऊंट के मुंह में जीरे के ही समान है। खुद भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की वर्ष 2012-13 की नमूना सर्वेक्षण संगठन रिपोर्ट इस बात की चुगली करती है कि इस दौरान देश में कुल 9.02 किसान परिवार थे। इनमें से 8.65 करोड़ किसान परिवार ऐसे थे जिनकी खेती की आय महीनेभर का खर्च चलाने के लिए पर्र्याप्त नहीं है। किसान परिवारों की महीने की औसत आय 3081 रुपये रही जबकि कुल उपभोग खर्च 6223 रुपये रहा। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि ऐसे किसान परिवारों का दो माह का घाटा भी इस रकम से पूरा नहीं हो पाएगा बाकि खर्च की कल्पना तो दूर की बात है। 
स्वामीनाथन कमेटी के सदस्य और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव अतुल अंजान कहते हैं कि सत्ता में आने से पहले भाजपा ने स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करने और किसानों की आमदनी दोगुना करने की पुरजोर वकालत की जिसके दम पर वह गद्दी पर बैठी लेकिन इस अंतरिम बजट ने किसानों और कृषि क्षेत्र को घोर निराशा दी। मोदी सरकार ने तीन वर्षों में सीमा, उत्पाद और सेल्स टैक्स से सात लाख करोड़ बटोरे लेकिन किसान को पेंशन के रूप में तीन रुपये तीस पैसे रोजाना दान स्वरूप थमा दिए। किसानों के साथ इससे भद्दा मजाक और कोई हो नहीं सकता।
भारतीय कृषक समाज के अध्यक्ष के कृष्णवीर चौधरी हालांकि इससे इत्तेफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि शुरुआत हुई जो एक अच्छा कदम है। दिल्ली-एनसीआर के किसानों को छोड़ दिया जाए तो देश के गरीब हिस्से के किसानों के लिए यह रकम राहत देने वाली है। राष्ट्रीय कामधेनु आयोग और पशुपालन-मछली पालने में क्रेडिट कार्ड योजना से केंद्र सरकार ने कष्ट में जी रहे किसान को संजीवनी देने का काम किया है। हालांकि वह खुद इसमें पांच हजार एकड़ यानि दो हेक्टेयर के हिसाब से 25 हजार की सहायता राशि को जायज ठहराते हैं। वे भी मानते हैं कि कर्ज माफी किसान की समस्या का समाधान नहीं बल्कि सब्सिडी का पूरा पैसा लगभग डेढ़ लाख करोड़ बैठता है, वह किसान की झोली में आए तो उसके हालात और बेहतर होेंगे। फ्यूचर ट्रेडिंग से किसान और मारा गया है।
उत्तर प्रदेश कृषि समृद्धि आयोग के सदस्य धर्मेंद्र मलिक कहते हैं कि भावान्तर योजना सरकार ने लागू की। एमएसपी और मंडी के दाम के बीच का अंतर सरकार वहन करे। एमएसपी 26 फसलों का है और सरकार केवल गेहूं और चावल ही खरीदती है, बाकि फसल भी खरीदे। बेसिक फसलों का भी एमएसपी तय हो और फसल की खरीद की गारंटी सरकार ले तभी किसान खुशहाल होगा वरना उसका और घाटे में जाना तय है। आज गन्ना किसानों का 20 हजार करोड़ का भुगतान नहीं हो रहा। किसान की चिंता है तो पहले यह भुगतान कराएं। तिमाही दो हजार की राशि किसानों को बरगलाने का शिगुफाभर है।
एशिया फार्मर्स कॉर्डिनेशन कमेटी के समन्वयक युद्धवीर सिंह भी मानते हैं कि सरकार ने अंतरिम बजट में किसानों को छह हजार देकर उसके साथ भद्दा मजाक किया है। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार भावान्तर के मामले पर कुछ करेगी लेकिन कुछ नहीं हुआ। वे कहते हैं कि इस बार दलहन एमएसपी से साढ़े तीन हजार रुपये कुंतल के कम पर बिकी। सरसों में प्रति कुंतल 800 रुपये का घाटा हुआ। किसान को खैरात में पैसे नहीं बल्कि उसकी फसल के सही भाव ही मिल जाएं तो वह गुजर बसर कर लेगा। यह घोषण केवल चुनावी स्टंट है कुछ और नहीं। जो किसान दबाव में सरकार के नारे लगा रहे हैं उन्हें भी पता है कि किसान को कुछ नहीं मिला।

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