बदहाल देश का गन्ना किसान
डॉ.अनिल चौधरी
देश का गन्ना
किसान बदहाली के
कगार पर है।
कहने भर को
गन्ने की गिनती
नगदी फसलों के
रूप में की
जाती है लेकिन
समय से भुगतान
न होने और
उचित मूल्य न
मिलने से गन्ना
किसान की हालत
लगातार बदतर होती
जा रही है।
भुगतान न होने
की वजह से
उसके रोजमर्रा के
काम चौपट हो
ही रहे हैं।
बच्चों की पढ़ाई
और उनकी शादी-ब्याह तक में
अड़चन पैदा हो
रही है। हालात
यहां तक पहुंच
गए हैं कि
देश के तमाम
हिस्सों से अब
गन्ना किसानों की
आत्महत्या तक की
खबर आने लगी
हैं। गन्ना मूल्य
की निर्धारण नीति
में भी इतनी
खामियां हैं कि
हर साल सीजन
शुरू होने के
बाद भी गन्ने
के रेट सही
तरीके से तय
नहीं हो पा
रहे। केंद्र और
राज्य सरकारों के
बीच गन्ना किसान
लगातार पिस रहा
है। मिल मालिक
तो हर साल
घाटे का बहाना
बनाकर सरकारों से
करोड़ों का विशेष
पैकेज झटक लेते
हैं लेकिन गन्ना
किसान की हालत
जस की तस
ही रहती है।
यह हाल तब
है जब पिछले
एक साल से
किसानों के आंदोलनों
ने सरकारों की
चूलें हिलाने का
काम किया लेकिन
आश्वासन से ज्यादा
उसे कुछ भी
नसीब नहीं हुआ।
इस साल 13 फरवरी तक
देशभर में गन्ना
बकाया 20,167 करोड़ रुपये
पर पहुंच गया
है। इसमें से
एफआरपी (गन्ने का केंद्रीय
मूल्य) के आधार
पर यह बकाया
18,157 करोड़ रुपये है। गन्ने
का सबसे अधिक
7,229 करोड़ रुपये का बकाया
उत्तर प्रदेश में
है। महाराष्ट्र में
यह बकाया 4,792 करोड़
रुपये और कर्नाटक
में 3,990 करोड़ रुपये
है। यह हालात
तब हैं जब
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
खुद पिछले चुनाव
घोषणा पत्र में
किसानों को उनका
बकाया मात्र 14 दिन
में भुगतान कराने
का वादा किया
था। उसके बाद
उत्तर प्रदेश हो,
महाराष्ट्र हो या
मध्यप्रदेश सभी के
मुख्यमंत्रियों ने इस
पर अमल करने
का दंभ भरा
लेकिन पिराई सत्र
के बाद भी
एक साल हो
गया अभी भी
किसानों का बीते
सत्र का ही
करोड़ों रुपये बकाया है।
इतना अवश्य हुआ
कि इसकी आड़
में मिलों ने
विशेष पैकेज झटका
फिर भी किसानों
को भुगतान के
नाम पर चंद
राशि थमा दी
गई। इस बार
भी जब चीनी
मिलों ने बाजार
में 26 व 27 रुपये
प्रति किलो चीनी
बिकने से घाटे
का रोना रोया
तो केंद्र सरकार
ने फरवरी के
दूसरे सप्ताह में
चीनी मिल के
गेट पर चीनी
का बिक्री मूल्य
29 रुपये से बढ़ाकर
31 रुपये प्रति किलोग्राम कर
दिया था। उसके
बाद भी मिलों
ने भुगतान को
कोई तवज्जो नहीं
दी।
निजी चीनी मिलों
का शीर्ष संगठन
इंडियान शुगर मिल्स
एसोसिएशन (इस्मा) ने भी
खुद माना कि
देशभर के गन्ना
उत्पादकों का चीनी
मिलों पर बकाया
रकम 31 दिसंबर 2018 तक बढ़कर
करीब 19,000 करोड़ रुपये
हो गई, जिसमें
पिछले साल का
2,800 करोड़ रुपये का बकाया
भी शामिल है
और मौजूदा सीजन
में बकाया राशि
पिछले सीजन के
करीब 10,600 करोड़ रुपये
के मुकाबले काफी
ज्यादा है। इस्मा
के अनुसार, 15 जनवरी
तक देशभर में
चालू 510 मिलों में चीनी
का उत्पादन 146.86 लाख
हुआ है, जोकि
पिछले साल की
समान अवधि से
8.32 फीसदी अधिक है.
पिछले साल देशभर
में 15 जनवरी तक चीनी
का उत्पादन 135.57 लाख
टन हुआ था.
मिलों को ही
और राहत की
तैयारी
केंद्र सरकार चीनी मिलों
के घाटे की
भरपाई करने और
किसानों का गन्ने
का बकाया भुगतान
कराने का फार्मूला
तलाशने में जुटी
है। खुद केंद्रीय
खाद्य मंत्री रामविलास
पासवान ने एक
साक्षात्कार में बताया
कि प्रधानमंत्री की
अगुवाई में केंद्रीय
मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और
नितिन गडकरी के
साथ हुई बैठक
में जल्द ही
नई नीति पर
विचार किया जा
रहा है। चीनी
पर सेस की
तैयारी की जा
रही है। एथनॉल
के उत्पादन को
अनिवार्य बनाया जा रहा
है इसीलिए अब
तक एथनॉल पर
लगने वाले 18 प्रतिशत
जीएसटी को भी
घटाने पर विचार
किया जा रहा
है। हालांकि पासवान
एक भुगतान को
लेकर गेंद राज्य
सरकारों के पाले
में खिसका खुद
को किसान हितैषी
होने का दंभ
भरते दिखे। उन्होंने
एजेंसी को दिए
एक साक्षात्कार मेंकहा
कि अंतत: गन्ना
भुगतान की जिम्मेदारी
राज्य सरकारों की
है और वे
मुख्यमंत्रियों को पत्र
भी लिख रहे
हैं लेकिन वे
ये भूल जाते
हैं कि जिन
राज्यों में सबसे
अधिक गन्ने का
बकाया है वहां
पर उनके गठबंधन
की ही सरकारें
हैं। यही नहीं
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के
मुखिया शरद पवार
भी किसानों के
बारे में प्रधानमंत्री
को चिट्ठी लिखकर
बकाया भुगतान से
परेशान किसानों के विद्रोह
को टालने के
लिए तत्काल कदम
उठाने का आग्रह
कर चुके हैं।
मिल घाटे में
सरासर झूठ
कृषि विशेषज्ञ र्देंवदर शर्मा
का मत है
कि गन्ना किसानों
की परेशानी चीनी
मिलों की ब्लैकर्मेंलग
से शुरू होती
है। यह आज
की बात नहीं
है, पिछली सरकारों
को भी चीनी
मिलों ने ब्लैकमेल
किया है। चीनी
मिलें घाटे में
चल रही हैं।
यह सरासर झूठ
है। सरकारें भी
इस झूठ में
उनके साथ हैं।
चाहे वह उत्तर
प्रदेश, पंजाब या फिर
केंद्र की सरकार
ही क्यों न
हों. केंद्र की
मोदी सरकार ने
तो कमाल ही
कर दिया है।
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी
बोलते हैं किसानों
को भगवान या
सरकार के भरोसे
नहीं होना चाहिए।
लेकिन जो बात
वह नहीं बोलते
हैं वह यह
है कि किसानों
को सिर्फ इंडस्ट्री
के भरोसे होना
चाहिए। अब अगर
यह होगा तो
किसानों का भला
कैसे होगा? हमें
यह समझना होगा
कि सरकार की
मंशा सिर्फ इंडस्ट्री
की मदद करने
की है। वैसे
भी चीनी मिलें
हमेशा फायदे में
रहती हैं, जब
बंद अर्थव्यवस्था थी
तब उन्होंने खूब
मुनाफा कमाया और आज
जब खुली अर्थव्यवस्था
है तब भी
वह अपना मुनाफा
कम नहीं होने
देना चाह रही
हैं। किसानों की
परवाह उन्हें नहीं
हैं।
ये है 14 दिन में
गन्ना भुगतान का
गणित
मिलों को गन्ने
की खरीद के
बाद निर्धारित 14 दिन
के भीतर किसानों
को भुगतान करना
होता है अगर
इस अवधि में
भुगतान नहीं किया
गया तो वह
बकाया कहलाता है।
इसके बाद ब्याज
सहित किसानों को
गन्ने का भुगतान
जरूरी है। लेकिन
दुर्भाग्य ही कहा
जाएगा कि गन्ना
नीति तो बनाई
गई फिर भी
आज तक किसानों
को ब्याज सहित
गन्ने का भुगतान
आज तक किसी
भी सरकार ने
नहीं किया। इसके
लिए हाईकोर्ट और
सुप्रीम कोर्ट तक किसानों
ने मुकदमे लड़े
और अदालतों ने
ब्याज सहित भुगतान
करने के आदेश
भी समय-समय
पर जारी किए
लेकिन नतीजा वही
ढाक के तीन
पात ही रहा।
ब्राजील मॉडल अपनाना
जरूरी
गन्ना किसानों की भुगतान
की समस्या और
मिलों की सरप्लस
चीनी के कारण
घाटे का बहाना
इन दोनों समस्याओं
से ब्राजील मॉडल
अपनाकर छुटकारा पाया जा
सकता है। इसके
लिए केंद्र सरकार
को ठोस पहल
करनी होगी। गन्ने
से एथनॉल नाम
का उत्पाद बनता
है जिसे कार
में पेट्रोल के
स्थान पर डाला
जा सकता है।
ब्राजील ने इस
नीति का बहुत
सफल उपयोग किया
है। वहां गन्ने
का उत्पादन लगातार
बढ़ा रहा है।
विश्व बाजार में
जब पेट्रोल महंगा
होता है तो
ब्राजील गन्ने का उपयोग
एथनॉल के उत्पादन
के लिए करता
है और चीनी
का निर्यात कम
कर देता है।
इसके विपरीत जब
विश्व बाजार में
चीनी का दाम
अधिक होता है
तो एथनॉल का
उत्पादन कम करके
चीनी का उत्पादन
बढ़ाता है और
उस चीनी को
निर्यात करता है।
केंद्र ने एथनॉल
बनाने का लक्ष्य
10 फीसदी रखा लेकिन
हमारे देश में
वर्ष 1917-18 में मात्र
4.5 फीसदी ही लक्ष्य
तय हो पाया।
जबकि 70 लाख टन
चीनी सरप्लस रही।
इसके लिए केंद्र
ने राज्य सरकारों
के पाले में
गेंद डाली है
ताकि वह एथनॉल
का अधिकतर उत्पादन
कर सकें लेकिन
अभी तक कोई
ठोस नीति धरातल
पर उतरती नजर
नहीं आ रही।
ये था रंगराजन
समिति का फार्मूला
रंगराजन समिति (2012) ने चीनी
उद्योग के नियंत्रण
व संरचनात्मक असंतुलन
को दूर करने
हेतु चीनी के
बाजार मूल्य के
साथ गन्ना की
कीमतों को जोड़ने
का सुझाव दिया।
रंगराजन समिति की रिपोर्ट
के आधार पर,
कृषि लागत और
मूल्य आयोग (सीएसीपी)
ने गन्ना की
कीमतों को ठीक
करने के लिए
एक मिश्रित दृष्टिकोण
की सिफारिश की,
जिसमें उचित और
लाभकारी मूल्य (एफआरपी) और
राजस्व साझाकरण फॉर्मूला (आरएसएफ)
शामिल किया गया।
इस दृष्टिकोण के
तहत अगर चीनी
और उप-उत्पादों
की कीमत अधिक
है तो गन्ना
किसानों का राजस्व
भी अधिक होगा।
गन्ना के प्रमुख
उत्पादकों में से
महाराष्ट्र और कर्नाटक
ने राजस्व साझा
करने के इस
फार्मूले को स्वीकार
कर लिया है।
हालांकि, यूपी पुराने
एमएसपी मॉडल का
पालन कर रहा
है। एमएसपी और
आरएसएफ द्वारा निर्धारित मूल्य
के बीच बड़ा
अंतर यूपी में
बकाये की गंभीर
समस्या का मुख्य
कारण माना जाता
है।
गन्ना व्यापार का अर्थशास्त्र
त्रुटिपूर्ण
चीनी निर्माताओं का राजस्व
चीनी की कीमत
और तीन प्राथमिक
उप-उत्पादों अर्थात
गुड़, बैगेज और
प्रेस मिट्टी पर
निर्भर करता है।
गुड़ का उपयोग
इथेनॉल के निर्माण
के लिए किया
जाता है, बैगेज
(खोई) का उपयोग
पेपर और लुगदी
उद्योग में किया
जाता है इसके
अलावा इस खोई
का उपयोग बिजली
के अधिशेष के
उत्पादन में भी
किया जाता है
जो राज्यों को
बेचा जाता है,
और प्रेस मिट्टी
का उपयोग किसानों
द्वारा खाद के
रूप में किया
जाता है। भारत
के 485 परिचालित चीनी मिलों
में से 201 आसवन
क्षमता वाली हैं
और 128 इकाइयां एथनॉल का
उत्पादन करती हैं।
हालांकि, एकीकृत मिलों के
कुल राजस्व में
एथनॉल केवल 10-15 प्रतिशत
का ही योगदान
देता है। चीनी
मिले चीनी के
अलावा इससे बनने
वाले तमाम प्रोटक्ट
को भी बाजार
में बेचकर मोटा
मुनाफा हैं लेकिन
किसान की उसमें
कभी कोई हिस्सेदारी
तय ही नहीं
की गई।
भारतीय किसान यूनियन के
अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत
का कहना है
कि ‘न मोदी
सरकार कुछ कर
रही है, न
ही बाकी राज्य
सरकारें। किसान बेचारा इतनी
मेहनत करके कड़ाके
की ठंड में
मरकर जो फसल
उगाता है अगर
उसकी मूल लागत
भी न मिले
तो वह क्या
करे? मोदी सरकार
जय जवान जय
किसान के नारे
के साथ बहुमत
की सरकार बनाने
में कामयाब हुई
थी लेकिन अब
किसानों र्की ंचता
किसी को नहीं
है.’ भाजपा सरकार
ने इस बार
भीर गन्ने का
दाम नहीं बढ़ाया,
जबकि गन्ना उगाने
की लागत कई
गुना बढ़ चुकी
है। एक कुंतल
गन्ना बोने में
लागत 400 रुपये के करीब
पड़ रही है।
हम तो फिर
भी 350 रुपये की मांग
कर रहे हैं।’
बॉक्स:
चीनी और चीनी
मिलों की स्थिति
-दुनिया
की सबसे बड़ा
चीनी उपभोक्ता भारत
है जहां 26 मिलीयन
टन प्रतिवर्ष की
दर से उपभोग
होता है
-दुनिया
में दूसरे नंबर
का सबसे अधिक
चीनी उत्पादक देश
भारत है जहां
प्रतिवर्ष 31 मिलीयन टन चीनी
का उत्पादन होता
है।
-प्रति
वर्ष भारत में
एक लाख करोड़
का चीनी का
वार्षिक कारोबार होता है।
-करीब
530 चीनी मिलें भारत में
संचालित हो रही
है।
-करीब
5 लाख कर्मचारी चीनी
मिलों में कार्यरत
हैं।
-करीब
50 लाख हेक्टेयर जमीन पर
गन्ने का उत्पादन
होता है।
-करीब
85 हजार करोड़ रुपये
का गन्ने का
भुगतान हर साल
किया जाता है।
-भारत
में प्रतिवर्ष प्रति
व्यक्ति 20 किलो चीनी
का उपभोग किया
जाता है, जो
काफी कम माना
जाता है।
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