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Tuesday 10 September 2013

सियासत का खेल




सियासत को लहू पीने की लत है,

वरना मुल्क में सब खैरियत है।

मुजफ्फरनगर हिंसा की चपेट में है और आधा सैकड़ा लोगों की जान जाने के बाद भी नफरत की भड़की इस आग में राजनेता रोटियां सेकने से बाज नहीं आ रहे। आएं भी क्यों, उन्हें लगता है कि सत्ता का रास्ता इन्हीं गलियारों से होकर जाता है। लोहिया का समाजवाद क्या यही था या राम ने ऐसे रामराज की कल्पना कभी की होगी। उत्तर हर पढ़ा लिखा और अनपढ़ आदमी भी दे सकता है लेकिन वह संगठित नहीं है इसलिए उसके एकल विचार की कोई एहमियत नहीं और न ही कभी तवज्जो दी जाती है।

मुजफ्फनगर की इस सांप्रदायिक हिंसा की खूब चीरफाड़ होगी। एक से बढ़कर एक सामाजिक, राजनीतिक विश्लेषक समीक्षा करेंगे लेकिन हकीकत के धरातल पर असली समीक्षा उन्हें ही करनी है जिनको वहां रहना है। खेती करनी है या खेती से अपने घर बनाने सवारने हैं। ऐसे समाज में घूम रहे वोट के भूखे भेड़ियों से बचना अब उस हर शख्स का काम है जो जयश्रीराम के नारों के साथ तलवारें म्यान से निकालते हैं या फिर अल्लाह के नाम पर खंजरों की धार तेज करते हैं।

इतिहास गवाह है कि जब-जब इस गंगा-जमुनी तहजीब पर किसी की बुरी नजर पड़ी तब-तब इस इलाके में रहने वाले सभी मजहब के लोगों ने उस चुनौती को अपनी माटी की अस्मिता से जोड़कर उसका मुकाबला किया।

कितना भी बड़ा मुकदमा गांव की पंचायत में बेहद शालीनता के साथ निबटा लिया गया। रामकिशन ने खुद चंदा देकर मस्जिद बनवाने में योगदान किया तो आसिफ मियां ने कन्नी लेकर मंदिर की नींव में उसी शिद्दत के साथ योगदान किया। तो नफरत आई कहां से। स्वाभाविक है इसके उत्तर खुद ही तलाशने होंगे।

अब न वो पंचायतें रहीं ओर न ही वे हुक्मरान जो कौमी एकता की मिसाल बनते थे। पंच भी घर से ही एक पक्षीय फैसला करके पंचायतों में जाने लगे तो ऐसी पंचायतों का ही अस्तित्व अंतिम सांस ले रहा है। इस बात की चिंता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत को भी थी। अक्सर उनके साथ काफी लंबी-लंबी गुफ्तगू हो जाती थी तो इस बात पर वह काफी असहज और चिंतिक दिखते थे। कहते थे कि इसीलिए समाज का पतन हो रहा है और चरित्र गिर रहा है। और जिस समाज का चारित्रिक पतन होने लगता है तो ऐसे कौमें इतिहास में ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पातीं इसीलिए इनको जोड़ने की कोशिश होती रहनी चाहिए। यही राजनीतिक दलों की स्थिति है।

मुजफ्फनगर की घटना में आपको ये सभी तत्व मिल जाएंगे। कवाल में हुई घटना आक्रोश का परिणाम थी लेकिन उसको हवा देने का काम किया सबसे पहले प्रशासन ने उसके बाद हिन्दू संगठनों ने और इसका राजनीतिक लाभ लेने का गणित भिड़ाया सपा ने। इस त्रिशंकुषड़यंत्र के बीच जिसके दो बेटे मारे गए उस बाप की चीत्कार पंचायत के मंच के शोर में कहीं गुम हो गई और वोटों के धु्रवीकरण का शंखनाद हावी होता चला गया।

कुछ सवाल यहां और भी खड़े हो रहे हैं। माना जाता है कि समाज का सबसे तीव्र बुद्धि वाला तबका होता है जो प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करता है। लेकिन प्रशासनिक अधिकारी भी पार्टीबंदी में उलझकर रह गए हैं। देश की अस्मिता, सार्वभौमिकता और अखण्डता को बचाए रखने की कसम खाने वाला यह प्रशासनिक अमला अधिकांशतया ऐसे नेताओं के तलवे चाटता दिखाई दे रहा है जिनकी न कोई विचारधारा है और न ही कोई जमीर। इनमें से कोई हिन्दू के नाम पर समाज में विष घोल रहा है कोई जाति के नाम पर। अब तो गोत्र तक लोग उतर आए हैं।

सभी कहते नहीं अघाते कि देश या प्रदेश बर्बादी की कगार पर है। उनसे पूछो कि समस्या का हल क्या है तो तपाक से कहते हैं कि हमारे धर्म या जाति का नेता सीएम या पीएम बने तो समस्या खत्म।

सवाल ये उठता है कि इस सोच को पैदा ही क्यों होने दिया गया। इसके लिए देश की आजादी के बाद के लोगों को दोष के कटघरे में खड़े किया जाए या फिर उससे पहले के अलंबरदारों को या उससे भी पहले के, जब से समाज अस्तित्व में आया। सवाल का जवाब मिलना बेहद कठिन है।

जब कोई मजहब आपस में बैर करना सिखाता ही नहीं है तो ऐसे लोगों को राक्षस या जिन्नात की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए जो बैर करना सिखा ही नहीं रहे बल्कि उसके लिए मजबूर कर रहे हैं।

मैं फिर मुजफ्फनगर की घटना पर ही आ रहा हूं। प्रशासन ने आधा सैकड़ा लोगों के शवों को देख अपनी आत्मा की आवाज सुनी और जिन लोगों को शुरुआती दौर में नामजद किया गया था उनको निर्दोष करार दिया। यही एकमात्र लोगों की मांग भी थी लेकिन यह सब तब किया गया जब दो कौमों के बीच नफरत की खाई को इतना चौड़ा होने का मौका मिला जिसको भरने में दशक बीत जाएंगे।

चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने रामजन्म भूमि विवाद से भड़की इन दोनों समुदाय के बीच की नफरत को भोपा में 8 अगस्त 1989 को पाटने का ही काम नहीं किया बल्कि आपसी भाईचारे की नींव को दशकों तक इतना मजबूत रखा, कि इस दौरान बड़े से बड़ा सांप्रदायिक हवा का झोंका उसका बाल भी बांका नहीं कर सका। इस विरासत को उन्होंने जिनको सौंपा वह भी लाख कोशिशों के बाद इस झोंके को नहीं रोक पाए। अब देखना ये है कि इस कौमी एकता की नींव के पत्थर कौन-कौन साबित होंगे, इसका मुझे भी बेसब्री से इंतजार रहेगा। इसलिए सही कहा गया है-

लोग टूट जाते हैं एक घर बसाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलवाने में..।



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